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तुलसी के रूप में क्यों होती है वृंदा की पूजा, किस नदी में मिलते हैं शालिग्राम

देवरिया। देवउठनी एकादशी या प्रबोधनी एकादशी हिंदू धर्म का एक विशेष पर्व है क्योंकि धार्मिक मान्यताओं के अनुसार यही वह दिन है जब भगवान विष्णु 4 महीने की योग निद्रा से जागते हैं। इस दिन चातुर्मास खत्म हो जाता है। तुलसी विवाह के दिन से ही सभी शुभ और मांगलिक काम शुरू हो जाते हैं। देवउठनी एकादशी अपने आप में एक मुहुर्त है इस दिन कोई भी शुभ काम या कोई बड़ी खरीदारी बिना कोई मुहुर्त देखे की जा सकती है। आइए जानते हैं तुलसी विवाह का महत्व और तुलसी के पूजे जाने के पीछे का कारण।

तुलसी और विष्णु के शालिग्राम रूप का होता है विवाह
इस दिन ब्रह्म मुहुर्त में उठकर ही भगवान विष्णु की पूजा अर्चना कर निद्रा से उठाया जाता है। इसके लिए सुबह से ही भजन, कीर्तन किया जाता है। घंटे, शंख आदि बजाए जाते हैं। शाम के समय गोधुली बेला में भगवान शालिग्राम और तुलसी के पौधे का विवाह कराया जाता है। मंदिरों और घरों को दीपक से सजाया जाता है। कई जगहों पर तुलसी विवाह को ही छोटी दिवाली के नाम से भी जाना जाता है।

तुलसी विवाह की कथा, क्यों पूजी जाती हैं वृंदा
प्राचीन काल में जलंधर नाम का एक बहुत ही अत्याचारी असुर था उसकी पत्नी थी वृंदा। जलंधर दुराचारी और अधर्मी था। उसके अत्याचार से देवता और मनुष्य सभी परेशान थे। लेकिन उसकी पत्नी वृंदा के पतिव्रत धर्म और सतित्व के कारण जलंधर का अंत नहीं कर पा रहे थ । वृंदा श्री हरि विष्णु की भक्त भी थी। तब सभी देवता मिलकर भगवान विष्णु और शिवजी के पास पहुंचे और जलंधर के अंत का उपाय पूछने लगे तब भगवान विष्णु जलंधर का रूप धारण करके वृंदा का सतीत्व भंग कर देते हैं। जिससे जलंधर की शक्ति खत्म हो जाती है और शिवजी उसका वध कर देते हैं। बाद में जब विष्णु भक्त वृंदा को ये बात पता चलती है तो क्रोध में उसने भगवान विष्णु को पत्थर बन जाने का श्राप दे दिया, विष्णु जी का यही पत्थर रूप शालिग्राम कहलाता है।
विष्णु जी ने तुलसी के श्राप को स्वीकार कर लिया। बाद में माता लक्ष्मी के आग्रह पर वृंदा ने अपना श्राप वापस लिया और सती हो गई। उनकी राख पर ही तुलसी का पौधा उगा तब विष्णु जी ने वरदान दिया कि तुम पृथ्वी पर पौधे और नदी के रूप में मेंशा मेरे साथ पूजी जाओगी। उस दिन कार्तिक शुक्ल की एकादशी थी। तभी से तुलसी और शालिग्राम के विवाह की परंपरा चली आ रही है। तुलसी नेपाल की गंडकी नदी और पौधे के रूप में आज भी धरती पर पूजनीय है और गंडकी नदी ही वह नदी है जिसमें भगवान का शालिग्राम रूप पाया जाता है।

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