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ये हैं उत्तर प्रदेश के प्राचीन हनुमान मंदिर, यहां बजरंग बली के दर्शन से मिट जाते हैं दु:ख

देवरिया। राम के परम भक्त हनुमान का जन्मोत्सव धूमधाम से मनाया जा रहा है। हनुमान जी को संकटमोचन कहा जाता है और जन्मोत्सव के दिन इनकी पूजा अर्चना का विशेष महत्व है। हिंदू धर्म के अनुसार हनुमान लला को उन 7 चिरंजीवी लोगों में से माना जाता है, जिन्हें अमरता का वरदान मिला है। इसलिए श्री हनुमान को अब भी पृथ्वी पर जीवित माना गया है।

ग्रह शांति के लिए होती है हनुमान जी की पूजा
हनुमान जन्मोत्सव के दिन हनुमान जी की विशेष पूजा करने से ग्रहों की शांति की जा सकती है और जीवन में आने वाली तमाम बाधाओं को दूर कर सकते हैं। इस दिन हनुमान जी की पूजा से शिक्षा, विवाह, कर्ज और मुकदमे से मुक्ति मिलती है। यहां हम आपको बताते हैं उत्तर प्रदेश के प्रमुख हनुमान मंदिर, जहां हनुमान जी का जन्मोत्सव बड़ी धूमधाम से मनाया जाता है। साथ ही इन मंदिरों की खास मान्यताओं के बारे में भी आपको बताएंगे।


प्रयागराज के बड़े हनुमान जी
प्रयागराज का यह मंदिर हनुमान जी की लेटी हुई प्रतिमा के लिए प्रसिद्ध है। किले से सटा यह मंदिर बड़े हनुमान जी के नाम से जाना जाता है और काफी प्राचीन भी माना जाता है। हनुमान जी की लेटी हुई प्रतिमा वाला देश का यह एकमात्र मंदिर है। यहां हनुमान जी की प्रतिमा की लंबाई 20 फीट है और अपनी एक भुजा में अहिरावण को और दूसरी भुजा में दूरे राक्षस को दबाए हुए हैं।

अयोध्या का हनुमानगढ़ी
श्री राम को प्रिय हनुमान जी का एक प्रसिद्ध मंदिर अयोध्या में भी है, जिसे हनुमानगढ़ी के नाम से जाना जाता है। यह मंदिर राजद्वार के सामने ऊंचे टीले पर स्थित है मंदिर तक पहुंचने के लिए श्रद्धालुओं को 70 सीढ़ियां चढ़नी होती हैं। मंदिर की दक्षिण दिशा में सुग्रीव टीला और अंगद टीला भी है।

सीतापुर का हनुमान धारा मंदिर
यूपी में सीतापुर नाम की जगह है, जहां हनुमान धारा मंदिर स्थित है। इस मंदिर की खासियत यह है कि यहां हनुमान जी की विशाल मूर्ति है, जिनके सर पर दो कुंड हैं, इनसे पानी की धार लगातार बहती रहती है। पानी की धार हनुमान जी के पूरे शरीर पर से होते हुए बहती है। मान्यता है कि लंका दहन के ताप को कम करने के लिए भगवान श्री राम ने हनुमान जी को इस स्थान के बारे में बताया था।

वाराणसी के संकटमोचन
इस मंदिर के हनुमान जी को स्वयंभू माना जाता है। वाराणसी में स्थित इस मंदिर
के चारों तरफ छोटा वन भी है। मंदिर में स्थापित प्रतिमा के पीछे मान्यता है कि यह तुलसीदास जी की तपस्या से पवनसुत स्वयं ही प्रकट हुए थे।

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