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रामधारी सिंह ‘दिनकर’: जिनकी कलम करती थी वीर रस की ‘जय’, जिन्होंने लिखे हिन्दी साहित्य के स्वर्णिम अध्याय

देवरिया। राष्ट्रकवि रामधारी सिंह दिनकर जी की अमिट रचनाएं हमेशा उन्हें हमारे बीच जीवंत बनाए रखती है। वे हिन्दी साहित्य के चिरंजीव सितारे हैं। रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की गिनती वीर रस के श्रेष्ठ कवियों में होती है। रश्मिरथी, उर्वशी और चक्रव्यूह जैसी उनकी कई प्रमुख रचनाएं निराश हृदय में भी उत्साह का प्राण फूंक दें। हिन्दी साहित्य पढ़ने वाले उनकी गद्य रचना ‘संस्कृति के चार अध्याय’ पढ़े बिना साहित्य पूरा नहीं मानते। हिन्दी सहित्य में उनके योगदानों के लिए उन्हें पद्म भूषण, ज्ञानपीठ पुरस्कार और साहित्य अकादमी पुरस्कार से भी सम्मानित किया गया।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ जी सिर्फ एक कवि नहीं थे, वो एक ऐसे रचनाकार थे जिनकी कलम से दिनकर यानी सूरज का तेज निकलता था। वे हिन्दी साहित्य के वो सशक्त हस्ताक्षर हैं, जिसकी छाप पीढ़ियों को साहित्य पढ़ने के लिए आकर्षित करती रहेगी।


रामचरित मानस सुनकर आई थी कविता की समझ
रामधारी सिंह दिनकर जी का जन्म 23 सितंबर 1908 को बिहार के बेगुसराय जिले में आने वाले सिमरिया गांव में हुआ था। बचपन में ही इनके पिता का देहांत हो जाने की वजह से इनका बचपन काफी कठिनाइयों से गुजरा। दिनकर बचपन से ही अपने घर में रामचरित मानस का पाठ सुनते आ रहे थे, वहीं से उनके अंदर का कवि और कविता की समझ जागी, जिसने युवा होने तक उन्हें वीर रस का एक महान और राष्ट्रीय चेतना का सृजन करने वाला कवि बना दिया। 24 अप्रैल 1974 को बेगूरसाय में रामधारी सिहं दिनकर जी का निधन हो गया था। उनकी कविताएं ‘सिंहासन खाली करो कि जनता आती है’, ‘जवानी का झंडा’ ऐसी रचनाएं हैं जिनकी हर एक पंक्ति लोग उत्साह और जोश के साथ पढ़ते हैं। उनकी पुण्यतिथि पर पढ़िए हताशा में भी जोश जगाने वाली उनकी रचनाओं की पंक्तियां-


‘जवानी का झंडा’ हर पीढ़ी के युवाओं में जोश जगाने वाली कविता
घाट फाड़कर जगमगाता हुआ
आ गया देख, ज्वाला का बान
खड़ा हो, जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

सहम करके चुप हो गए थे समुंदर
अभी सुनके तेरी दहाड़
जमी हिल रही थी जहां दिल हिल रहा था
अभी हिल रहे थे पहाड़

खड़ा हो कि फिर फूंक विष की लगा
धुर्जटी ने बजाया विषान,
खड़ा हो जवानी का झंडा उड़ा,
ओ मेरे देश के नौजवान!

‘रश्मिरथि’ की ये पंक्तियां जो हर कठिन परिस्थिति में भी हौसला दे सकती हैं-

सच है विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
कांटों में राह बनाते हैं।

है कौन विघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पांव उखड़

मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।

‘सिंहासन खाली करों कि जनता आती है’ इस रचना के माध्यम से तत्कालीन सरकार के खिलाफ विद्रोह दर्ज कराया था।

सदियों की ठंडी-बुझी राख सुगबुगा उठी,
मिट्टी सोने का ताज पहन इठलाती है
दो राह, समय के रथ पर घर्घर-नाद सुनो,
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

जनता? हां, मिट्टी की अबोध मूरतें वही,
जाड़े-पाले की कसक सदा सहने वाली
जब अंग-अंग में लगे सांप हो चूस रहे,
तब भी न कभी मुंह खोल दर्द कहने वाली।

जनता ? हाँ, लम्बी-बड़ी जीभ की वही कसम
“जनता, सचमुच ही, बड़ी वेदना सहती है।”
“सो ठीक, मगर, आखिर, इस पर जनमत क्या है ?”
‘है प्रश्न गूढ़ जनता इस पर क्या कहती है ?”

मानो, जनता ही फूल जिसे अहसास नहीं
जब चाहो तभी उतार सजा लो दोनों में
अथवा कोई दूधमुँही जिसे बहलाने के
जन्तर-मन्तर सीमित हों चार खिलौनों में

लेकिन होता भूडोल, बवण्डर उठते हैं
जनता जब कोपाकुल हो भृकुटि चढाती है
दो राह, समय के रथ का घर्घर-नाद सुनो
सिंहासन खाली करो कि जनता आती है।

कलम, आज उनकी जय बोल
जला अस्थियां बारी-बारी
चिटकाई जिनमें चिंगारी,
जो चढ़ गए पुण्यवेदी पर
लिए बिना गर्दन का मोल
कलम, आज उनकी जय बोल

पीकर जिनकी लाल शिखाएं
उगल रही सौ लपट दिशाएं,
जिनके सिहंनाद से सहमी
धरती रही भी तक डोल
कलम, आज उनकी जय बोल

‘रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चांद’
रात यों कहने लगा मुझसे गगन का चांद
आदमी भी क्या अनोखा जीवन होता है!
उलझनें अपनी बनाकर आप ही फंसता,
और फिर बेचैन हो जगता, न सोता है।

आदमी का स्वप्न? है वह बुलबुला जल का
आज उठता और कल फिर फूट जाता है
किंतु फिर भी धन्य ठहरा आदमी ही तो
बुलबुलों से खेलता कविता बनाता है।

कुछ पंक्तियां ऐसी भी जो सोशल मीडिया पर लोगों की बड़ी पसंद बनी हुई हैं-
1. कहता है इतिहास जगत में हुआ एक ही नर ऐसा, रण में कुटिल काल-सम क्रोधी, तप में महासूर्य जैसा।
2. सब जन्म मुझी से पाते हैं, फिर लौट मुझी में आते हैं।
3. सौभाग्य न सब दिन सोता है, देखें आगे क्या होता है ?
4. याचना नहीं, अब रण होगा…
5. समर शेष है, नहीं पाप का भागी केवल व्याध, जो तटस्थ हैं, समय लिखेगा उनके भी अपराध।
6. दुनिया जब काफी ठोकरें खा चुकेगी, तब वह अध्यात्म की तरफ मुड़ेगी।

कैसे राष्ट्रकवि बने दिनकर ?
रामधारी सिंह दिनकर जी को पद्म भूषण से सम्मानित किया गया था। इसके साथ ही वह राज्यसभा सदस्य भी रहे थे। साल 1972 में उर्वशी के लिए उन्हें ज्ञानपीठ सम्मान से भी सम्मानित किया गया था। दिनकर जी की रचनाओं में वीर रस की कविताएं ज्यादा मिलेंगी। दिनकर जी की कविताओं के दौर में लोगों के मन में राष्ट्रभक्ति की भावना जोरों पर थी, इस भावना को उन्होंने कविताओं में पिरोया। यही कारण था कि उन्हें ‘राष्ट्रकवि’ के रूप में पहचान मिली।


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