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दुनिया का सबसे लंबा चलने वाला लोकपर्व है बस्तर दशहरा, रावण दहन नहीं होता, 75 दिन चलती हैं रस्में

देवरिया: छत्तीसगढ़ भारत का प्राकृतिक और सांस्कृतिक रूप से संपन्न राज्य है। प्रकृति की गोद में यहां रस्म-रिवाज और परंपराएं सांस लेती हैं। इन्हीं में से एक है बस्तर का दशहरा। बस्तर दशहरा 75 दिनों तक चलने वाला दुनिया का सबसे बड़ा लोकपर्व है। इस लोकपर्व के दौरान 12 से अधिक पारंपरिक और अनोखी रस्में निभाई जाती है। ये सभी रस्में और यहां का दशहरा करीब 600 साल पुराना माना जाता है। यहां दशहरा पर रावण दहन की परंपरा नहीं निभाई जाती। दशहरे के अवसर पर मां दंतेश्वरी के क्षत्र को 8 पहिए वाले विशाल और सुंदर रथ पर विराजित करके पूरे शहर में घुमाया जाता है। 75 दिनों तक चलने वाले इस भव्य आयोजन को देखने पूरे भारत के साथ-साथ विदेशी पर्यटक भी पहुंचते हैं।

पहली रस्म पाट जात्रा
बस्तर दशहरे की शुरुआत पाट जात्रा रस्म के साथ होती है। सावन महीने की अमावस्या यानी हरियाली अमावस्या से दशहरा प्रारंभ हो जाता है। इस दिन नए रथ के निर्माण के लिए लकड़ी लाई जाती है। लकड़ी मां दंतेश्वरी के मंदिर के सामने रखी जाती है और फिर रथ निर्माण के औजारों के साथ पूजा होती है।

दूसरी रस्म डेरी गड़ाई
डेरी गड़ाई बस्तर दशहरे की दूसरी रस्म है। मान्यता है कि इस रस्म के बाद ही रथ के निर्माण का काम शुरू होता है। रथ निर्माण के लिए जगंलों से सरई पेड़ की टहनियों को एक स्थान पर एकत्रित किया जाता है और उन लकड़ियों की भी विधि-विधान से पूजा की जाती है। इस पूजा में भी अंडे फोड़े जाते हैं और जिंदा मछलियों की बली दी जाती है। इसके बाद ग्रामीण जंगल जाकर पूरे रथ के लिए लकड़ियां लाते हैं।

तीसरी परंपरा में काछन देवी देती हैं दशहरे की अनुमति
दशहरे के पर्व की शुरूआत करने के लिए देवी की अनुमित लेने की परंपरा को काछनगादी कहा जाता है। इस रस्म में जिस देवी से अनुमति ली जाती है वो किसी मंदिर में या मूर्ति रूप में नहीं बल्कि किसी छोटी बच्ची को काटों के झूले में लेटाकार उसे देवी रूप में पूज कर इस पर्व को शुरू करने की आज्ञा ली जाती है। कांटों के झूलों पर लेटी बच्ची को साक्षात देवी का रूप माना जाता है। इस रस्म में कभी भी किसी बच्ची को किसी प्रकार की हानि नहीं होती। काछन देवी के रूप में कौन सी बच्ची झूले में बैठेगी इसके लिए भी तय नियम है। काछिन देवी अनुसूचित जाति मिरगान के एक विशेष परिवार की कुंवारी नाबालिग बच्ची को ही बनाया जाता है। माना जाता है बच्ची के अंदर देवी आकर बस्तर के राज परिवार को दशहरा मनाने की अनुमति देती हैं और पूरे पर्व को सफलता पूर्वक संपन्न कराने का आशीर्वाद भी।

चौथी रस्म है जोगी बिठाई
दशहरे की चौथी रस्म जगदलपुर के सिरहासार भवन में विधि-विधान के साथ पूरी की जाती है। जैसा कि इस रस्म का नाम है जोगी बिठाई उसी के अनुसार इस रस्म में एक शख्स जिसे जोगी कहा जाता है नौ दिनों के लिए निर्जला व्रत करता है और एक ही स्थान पर तप में बैठा रहता है। जोगी या योगी के इस तप का उद्देश्य दहशहरे के इस माहापर्व को बिना किसी बाधा के संपन्न कराना होता है।
इस रस्म को लेकर एक मान्यता भी है कि काफी साल पहले दशहरे के दौरान हल्बा जाति के एक युवक ने जगदलपुर में महल के करीब 9 दिनों तक तप किया था। जब राजा को इसकी जानकारी मिली तब वह उस युवक से मिलने गए और उससे उसके इस कठिन तप का कारण पूछा तब योगी ने बताया कि दशहरा पर्व के निर्विघ्न पूरा होने की कामना को लेकर वह यह तप कर रहा है। इस घटना के बाद राजा ने उस योगी युवक के लिए महल से बस कुछ ही दूरी पर सिरहासार भवन बनवाया ताकि यह परंपरा आगे भी अच्छी तरह से निभाई जा सके। तब से कोई ना कोई हल्बा जाति का युवक जोगी बनकर इसी भवन में तप करता है।

पांचवीं रस्म है रथ परिक्रमा
रथ परिक्रमा के तहत आदिवासियों के द्वारा सजाए गए रथ पर माता दंतेश्वरी के छत्र को पधराया जाता है और फिर सिरहसार भवन से शहर के गोल बाजार और गुरु गोविंद सिंह चौक होते हुए दंतेश्वरी मंदिर तक भ्रमण कराया जाता है। इस दौरान स्थानीय लोग ही भारी भरकम 30 फीट रथ को खींचते हैं रास्ते भर माता के छत्र की पूजा-अर्चना और स्वागत किया जाता है।


बेल पूजा कर निभाई जाती है छठी रस्म

बेल पूजा की रस्म में बस्तर का राज परिवार जगदलपुर से लगे सरगीपाल गांव जाता है और वहां के बेल चबूतरा में पूजा पाठ करता है। राज परिवारका स्वागत ग्रामीण गाजे- बाजे के साथ स्वागत करते हैं। बेल फल को राज परिवार का कोई सदस्य तोड़ता है और मां दंतेश्वरी के चरणों में अर्पित करता है। यह पूजा बड़े धूम-धाम से की जाती है।

सातवीं रस्म हैं निशा जात्रा
यह रस्म वर्षों से निभाई जा रही है। पहले इस को काले जादू की रस्म भी कहा जाता था। पहले के समय में राजा रानी अपने राज्यों को बुरी आत्माओं से बचाने के लिए यह रस्म निभाते थे। जिसके लिए हजारों की संख्या में जानवरों की और नर बलि दी जाती थी। आज के समय में 11 बकरों की बली देकर यह रस्म निभाई जाती है। ये पूजा को गुड़ी माता मंदिर में की जाती है।

मावली परघाव है आठवीं रस्म
मावली परघाव रस्म दो देवियों के मिलन की रस्म होती है। इसमें मावली माता के छत्र और डोली को दंतेवाड़ा स्थित दंतेश्वरी माता के मंदिर प्रांगण में लाया जाता है। मावली माता के छत्र का स्वागत बस्तर के राजकुमार और स्थानीय निवासी बड़े धूमृधाम से करते हैं। इस रस्म को नवरात्री की नवमी तिथि को किया जाता है।


नौवीं रस्म भीतर रैनी
विजयादशमी के दिन भीतर रैनी की रस्म निभाई जाती है। इस दिन रथ परिक्रमा पूरी होने पर आधी रात को इसे चुराकर माड़िया जाति के लोग शहर से लगे कुम्हड़ाकोट ले जाते हैं। यह भी एक प्रकार की रस्म है। जब राजशाही चलती थी तब राजा से नाराज जनता ने रथ चुराकर छिपा दिया था। इसी रस्म को अब भी प्रतिकात्मक रूप में निभाया जाता है।


दसवीं परंपरा बाहर रैनी रस्म

जब माड़िया जनजाति के लोग रथ चुराकर ले गए थे तब राजा अपनी नाराज प्रजा को मनाने कुम्हड़ाकोट पहुंचते थे और उनके साथ भोजन किया था। फिर रथ को वापस जगदलपुर लाया गया था। चुराए गए रथ को वापस लाने की प्रथा ही बाहर रैनी कहलाती है, जो आज भी बस्तर राजा के द्वारा निभाई जाती है। बाहर रैनी के साथ ही रथ की परिक्रमा भी समाप्त हो जाती है।

ग्यारहवीं रस्म के रूप में लगता है मुरिया दरबार
परिक्रमारी होने के बाद मुरिया दरबार लगाया जाता है । यह दरबार शहर के सिरहसार भवन में लगाया जाता है। पुराने समय में परिक्रमा पूरी होन के बाद बस्तर के राजा मुरिया दरबार लगातर आम जनता की समस्या सुनते थे और उसका समाधान करते थे। उसी तर्ज पर आज भी दरबार लगाया जाता है। बदले वक्त में आज मुख्यमंत्री, राज परिवार के सदस्य, बस्तर के विधायक, सांसद और दशहरा समिति के सदस्य दरबार में शामिल होते हैं। इनके साथ ही दशहरा को विधि-विधान से पूरा कराने वाले मांझी, चालकी, पुजारी और दूसरे सेवक भी मौजूद रहते हैं।

बाहरवीं रस्म है कुटुंब जात्रा
दशहरे के लिए चारों दिशाओं से अलग-अलग देवी देवताओं को आमंत्रित किया जाता है। माना जाता है कि इनके सहयोग और आशीर्वाद से ही दशहरा शांतिपूर्ण तरीके से संपन्न होता है। दशहरे के खत्म होन के बाद इन देवी देवताओं को विदाई देने के लिए कुटुंब जात्रा पूजा की जाती है।

डोली विदाई है आखिरी रस्म
बस्तर दशहरा का समापन दंतेवाड़ा से आई मां दंतेश्वरी देवी की विदाई से होती है। इसी परंपरा को डोली विदाई कहा जाता है। विदाई से पहले माता की डोली और छत्र को मंदिर में रखकर विधि विधान से पूजा अर्चना की जाती है। सशस्त्र बलों के द्वारा डोली को सलामी दी जाती है। इसके बाद जिया डेरा तक भव्य शोभायात्रा निकाली जाती है। इस शोभायात्रा में बस्तर राजा खुद मां की डोली को अपने कंधों पर रखकर चलते हैं। जिया डेरा पहुंचने के बाद पूजा होने के बाद माता की विदाई हो जाती है और इस विदाई के साथ ही बस्तर के 75 दिनों तक चलने वाले दशहरे का भी समापन हो जाता है।
बस्तर दशहरे के रथ की विशेषता

• बस्तर दशहरे में बनाए जाने वाले रथ की ऊंचाई करीब 30 फीट होती है।
• रथ निर्माण में उपयोग होने वाली सरई लकड़ियों से बेड़ाउमर, झाड़उमरगांव के आदिवासियों के द्वारा ही रथ को तैयार किया जाता है।
• इस रथ को आदिवासी 14 दिनों में तैयार कर लेते हैं।
• करीब 30 टन वजनी रथ को स्थानीय लोगों के द्वारा ही खींचा जाता है। हर कोई रथ खींचने के लिए उत्साहित रहता है।
• बस्तर में मनाए जाने वाले इस अद्भुत दशहरे की शुरूआत 1420 ईस्वी में माहाराज पुरुषोत्तम देव ने की थी।

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