देवरिया। भारत को त्योहारों का देश कहा जाता है। यहां हर महीने कोई ना कोई त्योहार मनाया जाता है। साल भर मनाए जाने वाले त्योहारों में से एक प्रमुख त्योहार है होली। होली का त्योहार आने ही वाला है। गांव से लेकर शहरों तक में बाजार रंग-बिरंगे गुलाल और तरह-तरह की पिचकारियों से सज गए हैं। होली मुख्य रूप से 2 दिनों का त्योहार माना जाता है, पहले दिन होलिका जलाई जाती है और दूसरे दिन रंग-गुलाल खेला जाता है। होलिका दहन को बुराई पर अच्छाई की जीत का प्रतीक माना जाता है। जैसे कि हमारे देश में कदम-कदम पर भाषा, बोली, खानपान और पहनावा बदल जाता है वैसे ही त्योहारों को मनाने की परंपरा में भी क्षेत्र के अनुसार बदलाव आ जाता है। आइए जानते हैं देश में होलिका दहन के दिन निभाई जाने वाली कुछ अनोखी परंपराओं के बारे में।
यहां होलिका अंगारों पर चलने की परंपरा
छत्तीसगढ़ के महासमुंद जिले में एक छोटा सा गांव है गम्हरी जहां पर होलिका दहन के बाद एक अनोखी परंपरा निभाई जाती है। गांव में पूरे ग्रामीण एक जगह इकट्ठा होकर पूरे रीति रिवाज के साथ ढोल नंगाड़े बजाकर होलिका की पूजा करते हैं और फिर होलिका दहन करते हैं। होलिका के जल जाने के बाद ग्रामीण उसके अंगारों पर नंगे पैर चलते हैं। इस परंपरा के पीछे ग्रामीणों की मान्यता है कि इससे मनोकामना पूरी होती है। कुछ ग्रामीण मन्नत पूरी होने पर अंगारों पर नंगे पैर चलते हैं। गांव को युवा वर्ग में अंगारों पर चलने का खासा उत्साह होता है।
यहां बंदूक से गोली चला होलिका में लगाई जाती है आग
मध्यप्रदेश के विदिशा जिले में आने वाले सिरोंज में होलीका दहन की अनोखी परंपरा निभाई जाती है। यहां पर होलिका में आग जलाने के लिए बंदूक से गोली चलाई जाती है। इस परंपरा को निभाते हुए सौ साल से भी ज्यादा हो चुके हैं। शहर के एक विशेष स्थान पर सबसे पहले बंदूक से होलिका जलाई जाती है, इसके बाद इसी बड़ी होलिका की आग से शहर की दूसरी होलिका को जलाया जाता है। सैकड़ों सालों से इस परंपरा को शहर में रहने वाला कानूनगो माथुर परिवार निभाता आ रहा है। पुराने समय में होलकर राज्य में सबसे बड़ी होली रावजी की होली कहलाती थी। तब होलकर परिवार के सदस्य होलिका में सूखी घास और कपास रखकर उसमें बंदूक से गोली जलाकर आग लगा करते थे। बाद में यह परंपरा होलकर स्टेट के कानूनगो परिवार के द्वारा निभाया जाने लगा जो आज भी जारी है।
सेमल की डाल पर खैर बांधकर जलाने की परंपरा
झारखंड में होलिका दहन के दिन सेमल की डाल पर खैर बांधकर जलाने की परंपरा चली आ रही है।इस परंपरा के पीछे एक लोक कला प्रचलित है जिसके अनुसार जनजातीय समाज के लोग पहले शिकार करके ही भोजना करते थे लेकिन एक समय उनके इलाके में एक बड़ा सांप आ गया जो सांस से खींचकर जानवरों को अपना शिकार बनाने लगा इस सांप को सांसूडी कहा जाता था। सांप के जानवरों के शिकार करने से जनजातीय समाज में भूखों मरने के हालात हो गए थे। तब गांव वालों ने मिलकर सांप को मारने का फैसला किया। इसके लिए एक महिला आग को माथे पर लेकर सांप के पास गई जैसे ही सांप ने महिला को अपनी ओर खींचा आग से वह घायल हो गया। जिसके बाद गांव वालों ने मिलकर विशालकाय सांप को मार दिया और वह सांप जिस सेमल के पेड़ पर रहता था उस पेड़ को भी सूखे खैर बांधकर आग लगा दी ताकी कोई दूसरा सांप भी हो तो वह मर जाए। इसी मान्यता के अनुसार आज भी होलिका दहन के दिन प्रतीक के रूप में सेमल की डाल पर खैर बांधकर जलाया जाता है।
सोने के प्रहलाद और चांदी की होलिका की होती है पूजा
भीलवाड़ा के हरणी गांव में पिछले 70 सालों से ना होलिका के लिए पेड़ काटे गए हैं ना ही होलिका जलाई गई है। 70 साल पहले होली के लिए पेड़ काटने को लेकर ग्रामीणों में विवाद हो गया था और जब होली जलाई गई तब उसकी चिंगारियों से पूरे गांव में आग लग गई थी। होलिका पर ग्रामीणों में विवाद और आग लगने का अपशगुन होने के बाद से ही ग्रामीणों ने गांव में होलिका नहीं जलाई। होलिका दहन की जगह चांदी की होलिका और सोने का प्रहलाद बनाया गया जिसे चारभुजानाथ मंदिर में रखा गया। होलिका दहन के दिन होलिका और प्रहलाद की मूर्ति की धूमधाम से शोभा यात्रा निकाली जाती है और होलिका दहन वाले स्थान पर ले जाया जाता है। वहां पर दोनों मूर्तियों की पूजा की जाती है और फिर से मंदिर में वापस रख दिया जाता है। इस अनोखे फैसले से होलिका के लिए पेड़ कटने से बच जाते हैं और पर्यावरण को भी नुकसान नहीं होता।