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त्योहारों के मौसम में हैंडलूम को बनाएं अपने वार्डरोब का हिस्सा, खूबसूरती में लगेंगे चार चांद

देवरिया: हमारे त्योहारों में जितनी खास परंपराएं होती हैं, खान-पान और परिधान का भी उतना ही महत्व होता है। फेस्टिवल सीज़न शुरू हो चुका है। एक के बाद एक त्योहार आने वाले हैं। ऐसे में कपड़ों की खरीदारी और उनका सेलेक्शन आपके लिए बहुत जरूरी हो जाता है। इस बार इस काम में आपकी मदद हम करेंगे। इस खूबसूरत और विविधताओं से भरे देश में जितनी तरह के पर्व मनाए जाते हैं, उतनी ही तरह के हैंडलूम यहां की संस्कृति में चार चांद लगाते हैं। पूरब से लेकर पश्चिम और उत्तर से लेकर दक्षिण पशमीना हो या कांजीवरम, बनारसी से लेकर चंदेरी तक, पैठनी हो या बांधनी सब आपको अपने मोहपाश में बांधने को तैयार हैं। आप अपने वार्डरोब में हैंडलूम को जगह देकर न सिर्फ बुनकरों का सम्मान करेंगी बल्कि उनकी आर्थिक मदद भी होगी।

भारत में हैंडलूम प्राचीनकाल से ही आजीविका का साधन रहा है। मेक इन इंडिया और आत्मनिर्भर भारत पर फोकस सरकार हर साल 7 अगस्त को ‘राष्ट्रीय हैंडलूम दिवस’ मनाती है। वर्ष 1905 में इसी दिन स्वदेशी आंदोलन की शुरुआत हुई थी, जो स्वतंत्रता आंदोलन का अहम हिस्सा था। 7 अगस्त 2015 को चेन्नई में प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने हथकरघा दिवस की शुरूआत की थी उसके बाद हर साल ये दिन हरकरघा को प्रमोट और सपोर्ट करने के लिए मनाया जाता है।

भारत के लिए विशेष है हथकरघा
हथकरघा उद्योग भारत की प्राचीन विरासत में से एक है। पूरे भारत के हथकरघा उद्योग मे लगभग 7 लाख लोग काम कर रहे हैं, जिनमें से 70 फीसदी महिलाएं हैं। भारत के हर राज्यों के हथकरघे की अपनी-अपनी खासियत है लेकिन एक बुनकर केवल कपड़े नहीं बुनता वो पूरे भारत को एक धागे में समेट कर विवधता में एकता की बात को सच साबित करता है। यही वजह है कि उत्तर की पश्मीना दक्षिण में लोगों को गर्माहट देती है, दक्षिण की कांजीवरम सिल्क से पश्चिम के गुजरात में लहंगे बनाए जाते हैं और पंजाब में सूट। वहीं पंजाब की फुलकारी चुनरी लगाकर मध्यभारत की लड़कियां खूब सजती हैं और मध्यप्रदेश की चंदेरी पूर्व में लोगों पर फबती है। आइए जानते हैं भारत के राज्यों के हथकरघा और उनके बुने हुए कपड़ों की विशेषता। शुरुआत करते हैं उत्तर भारत से।

कश्मीर का पश्मीना
कश्मीर के कपड़ों को जिक्र हो और पश्मीना का जिक्र ना हो ऐसा नहीं हो सकता। कश्मीर जाने वाला लगभग हर पर्यटक पश्मीना शॉल जरूर खरीदता है। पश्मीना बहुत ही मुलायम और हल्के होते हैं जिन्हें कात कर, बुन कर उनसे कपड़े तैयार किए जाते हैं फिर उन पर कढ़ाई कर शॉल और आजकल गरम कुर्ते भी बनाए जाते हैं। पश्मीना की विशेषता है कि बहुत पतले और हल्के होने के बाद भी ये बहुत गरम होते हैं। पश्मीना को बनाने के लिए लद्दाख के चंगथांग में पाई जाने वाली चांगरा बकरियों का ऊन चाहिए होता है। पश्मीना का एक धागा ही बहुत पतला होता है कहा जाता है हमारे बालों से भी छह गुना पतला। इसलिए इसे कातने, बूनने और रंग करने का काम विशेष और अनुभवी कारीगर ही करते हैं।

UP की पहचान बनारसी साड़ी
बनारसी सालों से शाही अंदाज का प्रतीक है। असली बनारसी सिल्क को बुनने में असली सोने और चांदी के तार का भी इस्तेमाल होता है। उत्तर प्रदेश के 6 जिलों वाराणसी, मिर्जापुर, गोरखपुर, चंदौली, जौनपुर और आजमगढ़ में बनारसी साड़ी का काम विशेष तौर पर किया जाता है। एक बनारसी साड़ी तैयार करने में 3 कारीगर लगते हैं जबकि इन्हें तैयार करने के में 6 महीने से 3 साल तक का समय लग सकता है। एक बनारसी साड़ी की कीमत तीन हजार से 2 लाख रुपए तक हो सकती है। 2009 में बुनकर संगठनों की मांग के बाद बनारसी सिल्क को भी GI टैग मिल गया है। आप बनारसी को पहनकर अपनी खूबसूरती में चार चांद लगा सकती हैं।

मध्यप्रदेश की चंदेरी और माहेश्वरी साड़ियां
चंदेरी मध्यप्रदेश के अशोकनगर जिले में स्थित ऐतिहासिक नगर है। चंदेरी को पूरे देश में कशीदाकारी और साड़ियों के लिए जाना जाता है। कहा जाता है पहले के समय में कपास के महीने धागे से बनी चंदेरी की साड़ियां मुट्ठी में समा जाया करती थीं। आप चंदेरी को अपने त्योहार का हिस्सा बनाकर अच्छा महसूस कर सकती हैं।

मन मोह लेगी महेश्वर साड़ी
नर्मदा नदी के किनारे बसा महेश्वर हिंदुओं का प्रमुख तीर्थस्थल है। यहां इंदौर की रानी अहिल्याबाई होल्कर का निवास करती थी। यहां महेश्वरी साड़ियों की शुरुआत भी महारानी अहिल्याबाई होलकर ने ही कराई थी। इन साड़ियों की खासियत इनकी चेकनुमा बुनावट है, जिसे स्थानीय भाषा में चौखड़ा कहा जाता है। यहां के बुनकर सूती में रेशमी धागे मिलाकर जो साड़ियां बनाते है, उन्हें नीम रेशमी साड़ियां कहा जाता है। मध्यप्रदेश में बनने वाली महेश्वरी साड़ियों का थोक बाजार महाराष्ट्र के कोल्हापुर और नागपुर में भी है।

छत्तीसगढ़ का कोसा
छत्तीसगढ़ के कोरबा और जांजगीर चांपा जिले में बनने वाला कोसा सिल्क अपने प्राकृतिक रंग और मुलायम होने के कारण पूरे देशभर में जाना जाता है। कोसा सिल्क बाकी दूसरे सिल्क की अपेक्षा मजबूत होता है और सिल्क की सबसे शुद्ध किस्म मानी जाती है। कोसा को रंगने के लिए पलाश, लाख और गुलाब की पंखुड़ियों से तैयार किए गए डाई से रंगा जाता है। बुनकरों को एक साड़ी तैयार करने में 6 से 7 दिन का समय लगता है। कोसा हमेशा से ही पहनने के लिए सबसे पसंदीदा रहा है। आप इन त्योहारों में कोसा की साड़ी, कुर्तों को अपनी आलमारी में जगह दे सकते हैं।

बंगाल का तांत
पश्चिम बंगाल का तांत कॉटन वहां की खास पहचान है। यह साड़ी दिखने में जितनी सुंदर लगती है, पहनने में भी उतनी ही आरामदायक। बंगाल में जब भी कोई खास अवसर होता है या कोई त्योहार महिलाएं तांत की साड़ी पहनती हैं। बंगाल में शांतिपुर और फुलिया दोनों जगह तांत की साड़ियों के लिए फेमस है। तांत की साड़ियां कांजीवरम और मैसूर सिल्क की तरह महंगी नहीं होती लेकिन इन्हें रख-रखाव की बहुत जरूरत होती है। अगर आपका दिल कम बजट में अच्छा पहनने का कर रहा है, तो तांत ले आइए।

दक्षिण भारत का वृहद हैंडलूम

कांजीवरम सिल्क
तमिलनाडू के कांचिपुरम का कांजिवरम सिल्क ना सिर्फ साउथ में पसंद किया जाता है बल्की भारत के कोने-कोने में इसकी मांग है। इतना ही नहीं विदेशों में रहने वाले भारतीयों की भी खास पसंद है। पौराणिक कथाओं के अनुसार कांजीवरण साड़ियां बुनने वाले बुनकर महर्षि मार्कण्डे के वंशज हैं। ऐसा माना जाता है कि पहले ये बुनकर कमल के रेशे से देवी-देवताओं के लिए पोषाक बुना करते थे। राजा कृष्णदेव राय के समय से ही कांजीवरम साड़ियां प्रसिद्ध हैं। सिल्क साड़ियों के उत्पादन का केंद्र होन के कारण कांचीपुरम को सिल्क सिटी के नाम से भी जाना जाता है। कांजीवरम साड़ियों को भारत सरकार की तरफ से जीआई स्टेटस (geographical indication ) भी मिल चुका है। इन त्योहारों पर कांजीवरम आपकी खूबसूरती पर चांर चांद लगा देगी।

मैसूर सिल्क
कर्नाटक के मैसूर में बनाए जाने वाला सिल्क भी भारत के साथ विदेश में भी प्रसिद्ध है। मैसूर में रेशम उद्योग का विकास पहली बार टीपू सुल्तान के शासनकाल मे हुआ था। पहले बुकरों के द्वारा पारंपरिक तौर पर किया जाता था और केवल शाही परिवार के लिए ही कपड़े बनाए जाते थे। स्वतंत्रता के बाद मैसूर राज्यरेशम उथ्पादन विभाग ने रेशम बुनाई कारखानों का नियंत्रण अपने हाथ में ले लिया और 1980 में कारखाने को कर्नाटक रेशम उद्योग (Karnataka Silk Industries Corporation Ltd.) सौंप दिया गया। मैसूर सिल्क साड़ी की जरी में 65 प्रतिशत चांदी और 0.65 प्रतिशत सोना होन के कारण ये भारत की महंगी साड़ियों में से एक है।

ओडिशा की संबलपुरी साड़ी
संबलपुर साड़ी ओडिशा के संबलपुर, बलांगीर, बरगढ़, बौध और सोनपुर जिले में पारंपरिक रूप से हाथ से बुनकर बनाई जाती है। जिसमें ताना और बाना बुनाई के साथ ‘टाई-डाई’ होते हैं। संबलपुरी साड़ियों में शंख, चक्र, फूल जैसे पारंपरिक चिन्ह बनाए जाते हैं, इसके साथ ही बॉर्डर और पल्लू पर जानवरों के चित्र भी बनाए जाते हैं। इस पूरी प्रक्रिया में कई हफ्ते लग जाते हैं। संबलपुरी साड़ी की किस्मों में सोनपुरी, पसापाली, बोमकाई, बारपाली और बाप्पा साड़ियां प्रसिद्ध हैं। इन साड़ियों की विशेषता है कि साड़ी पर की गई कलाकारी दोनों ओर से लगभग एक जैसी दिखती हैं।

हथकरघा उद्योग के सामने भी है चुनौतियां
हथकरघा उद्योग काफी लंबे समय से कारीगरों को रोजगार देता आया है। लेकिन अनदेखी और कोरोना महामारी ने बुनकरों की कमर तोड़ कर रख दी है। जी-जान लगाकर अपने-अपने क्षेत्रों की कला और संस्कृति को संजो कर रखने वाले बुनकर चाय के ठेले लगाने और सब्जी बेचने को मजबूर हो गए हैं। अगर ऐसा ही रहा तो कहीं ये समय न आए कि हम हथकरघा पहनने को तरस जाएं। बुनकरों की मांग है कि उन्हे भी किसानों की तरह मुआवजा दिया जाए। हम और आप अगर हैंडलूम को अपना हिस्सा बनाएं तो उन्हें सिर्फ प्रमोट ही नहीं बल्कि सपोर्ट भी कर सकते हैं। सबसे अच्छी बात कि इन्हें पहनकर त्योहार की रौनक और हमारी खूबसूरती बढ़ जाती है।

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